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नारी दिवस की आप सभी माताओं बहनों को अगणित शुभकामनाएँ एवं कोटिशः प्रणाम ………
शब्द रचना के आधार पर देखें तो ‘नर’ और ‘नारी’ में अंतर दृष्टिगोचर होता है ..जहाँ नर नंगा हैं, नीच है, वहीँ ‘नारी’ दीर्घ मात्रा,ओढ़निया के साथ हया और बड़प्पन को अपने में समाहित किये हुए है .
अबला जीवन हाय तेरी यही कहानी |
आँचल में है दूध और आँखों में पानी ||
राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त जी की ये पंक्तियों दिल में अंगद सा पांव जमा के बैठ गयी हैं .न केवल भारतीय नारियो की बात है अपित ये दर्दनाक दंश पूरे विश्व की सम्पूर्ण नारी जाति झेल, सहम-सिसक कर रह जाती है .
बड़ी विडम्बना है यहाँ . नारी अपनी अस्मिता को ठीक उसी प्रकार आज छुपाती फिर रही है जैसे कि कोई यौवना अपने फटे कपड़ों से अपनी आबरू ढकने के प्रयास में हो और इस प्रयास में वो फटा कपडा और फट गया हो .
मैंने “चंद हसीनों के खतूत” में पढ़ा – “औरत का दिल ऐसी चीज नहीं जिसे आज हिन्दू कल मुसलमान कह दिया जाय ..” || बेचन शर्मा जी काश आप के इन भावों को ये सभ्यजन और सभ्यता अंगीकार कर पाती .
बड़े दुर्भाग्य की बात है कि मेरे देश के हर एक अखबार में 8-10 समाचार दुष्कर्म के प्रकाशित होते हैं और इससे कही अधिक अप्रकाशित दुष्कर्म महज़ रशूकदारो के पैरों तले शिशकियों में बदल जाती हैं .
एक कवियित्री ने कभी एक प्रश्न किया था जिसका उत्तर ये समाज आज तक नहीं दे सका, आपके पास हो तो ये प्रश्न आपकी उपस्थिति में दोहराता हूँ –
कभी दीवारों में चुनी जाती हूँ कभी बिस्तर में ,
क्या औरत का बदन के सिवा कोई वतन नहीं होता ??
मैं अमृता प्रीतम को कहना चाहूँगा कि यहाँ कदम दर कदम दुश्वारियां हैं. कभी “यत्रु नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता “ को सशब्द साकार करने वाला यह भारत देश , ये संस्कृति आज पतन के गर्त में जा गिरी है . मुझे बड़ा दुःख होता है इस विषय को सोच कर कि पिता खुद की बिटिया के साथ , भाई अपनी बहिन के साथ, बेटा अपनी माँ के साथ , प्रोफ़ेसर खुद की पुत्री सदृश शिष्या के साथ , डॉक्टर अपनी महिला रोगी के साथ आदि अनादि कितने दुष्कर्म बयाँ करूँ ….!! बड़े आद्र स्वरों मे बस यही बोलना चाहूँगा कि – “ वास्तव में हम ख़ूब प्रगति कर गए हैं , हमने चाँद और मंगल को छुवा , रेल बनायीं , बिजली की खोज की लेकिन वस्तुतः हम इन्सान थे , हमे ईश्वर ने इन्सान बना के पैदा किया था और हम प्रगति करते करते इन्सान ही नहीं रहे .
ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कुत्ता पहले भी कुत्ता था आज भी है और आगे भी शायद रहे , बस ये बेजुबान जानवर ही तुमसे श्रेष्ठतम हैं, क्यूंकि ये अपनी प्रकृति और गुण धर्म के अनुरूप हैं . और हम इनसे बदतर हैं . भगवान की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव आज कुत्ते से भी बत्तर हो गयी है .
ऐ मेरे देश की नब्ज़ …नौनिहालों ! अपने इस समाज को सम्भालो अब सिर्फ तुम्ही से उम्मीदे कायम हैं बाकी तो सब कीड़े हो गए .
हो गयी है पीर पर्वत सी निकलनी चाहिए .
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए ||– (दुष्यंत कुमार )
मेरे देश की बेटियों,बहिनों,माताओं ..! अब समय आ गया है आदिशक्ति बनने का ..
अब सिर्फ ममता के आंचल में इस पुरुष प्रधान समाज को सुला के आप चैन से इज्जतशुदा साँसे भी नहीं ले पाएंगी …अस्तु जागो उठो समय आ गया है मिथक ये तोड़ने का . कब तक द्रौपदी,अहिल्या बनती जुल्म सहती रहोगी …अब न यहाँ कोई कृष्णा आयेंगे न ही कोई राम…..ये अपनी लड़ाई है इसे आप लड़नी है . ये अपने श्रृजन के अस्तित्व , मान , ममता की लड़ाई है . इस कलुषित समाज में अब गंगा सी बहना होगा हे नारी !…उठो !!..जागो ..!!
समय की सीमा है साहब और कहन असीमित है , यही शब्दों को विराम देता हुवा आपको प्रणाम, नमन………
विनय राज मिश्र ‘कविराज’
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